लगातार बातचीत रोक सकती है किशोरों में बढ़ते मनोविकार

लगातार बातचीत रोक सकती है किशोरों में बढ़ते मनोविकार

नरजिस हुसैन

यूं तो मानसिक स्वास्थ्य की कोई आधिकारिक परिभाषा नहीं है लेकिन, मानसिक स्वास्थ्य में हमारा भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कल्याण शामिल होता है। यह हमारे सोचने, समझने, महसूस करने और कार्य करने की क्षमता को प्रभावित करता है। गौरतलब है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) अपनी स्वास्थ्य की परिभाषा में शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य को भी शामिल करता है यानी स्वास्थ्य शारीरिक, मानसिक और सामाजिक कल्याण की समग्र स्थिति है और यह किसी बीमारी या अशक्तता का अभाव नहीं है। इस परिभाषा में आगे यह भी कहा गया है कि जाति, धर्म, राजनीतिक विश्वास, आर्थिक या सामाजिक परिस्थिति के भेदभाव के बिना स्वास्थ्य का अधिकतम आनंद लेना हर मनुष्य का बुनियादी अधिकार है। सारी दुनिया में खास तौर पर भारत सहित विकासशील देशों में सार्वजनिक स्वास्थ्य के रूप में व्यक्ति के शारीरिक स्वास्थ्य पर खास ध्यान दिया जाता रहा है, लेकिन मानसिक और व्यवहार संबंधी समस्याएँ सार्वजनिक स्वास्थ्य की बाकी समस्याओं पर हावी होती जा रही हैं।

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मानसिक रोगियों की बढ़ती आबादी-

विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2019 में जारी रिपोर्ट बताती है कि 7.5 प्रतिशत भारतीय किसी-न-किसी रूप में मानसिक रूप से बीमार हैं। यही नहीं रिपोर्ट ने इस बात की तरफ भी इशारा किया कि 2020 तक भारत की करीब 20 प्रतिशत आबादी मानसिक रोगों से पीड़ित होगी। मानसिक रोगियों की इतनी बड़ी तादाद के बावजूद अब तक भारत में इसे एक रोग के रूप में पहचान नहीं मिल पाई है, आज भी यहाँ मानसिक स्वास्थ्य को दरकिनार कर इसे काल्पनिक माना जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि जिस तरह शारीरिक रोग हमारे लिये नुकसानदेय हो सकते हैं उसी तरह मानसिक रोग भी हमारी सेहत पर नकारात्मक असर डालते हैं। समाज में इसे स्वीकार करने के डर के चलते इन विकारों को अक्सर लोगों से छिपाया जाता है, नतीजा यह होता कि मानसिक विकार वाले लोग बहुत ही खराब जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं।

23 दिसबंर, 2019 को जारी हुई लैंसेट साइक्रियाटिक रिपोर्ट सामने आई। इस रिपोर्ट में भारत में 1990-2017 के बीच देश के अलग-अलग राज्यों के मानसिक स्वास्थ्य का जायजा लिया गया है। एक दशक से भी ज्यादा के समय के रिकार्ड लिए मानसिक स्वास्थ्य पर पहली बार इतनी विस्तार और गहन रिपोर्ट देश के नीति बनाने वालों और संबंधित क्षेत्र में काम करने वालों के सामने आई है। ये बात वाकई चौंकाने वाली है कि देश में 2017 में हर सात में से एक आदमी किसी न किसी तरह की मानसिक बीमारी से जूझ रहा है। यानी करीब 19.7 करोड़ लोग मानसिक बीमारियों की चपेट में हैं। इन बीमारियों में डिप्रेशन, एनजाइटी, बाइपोलर, सिजोफ्रेनिया, ऑटिज्म, कंडक्ट डिसाडर और इन्टिलेक्च्अल डिजएबिलिटी खास हैं। कुल 4.57 करोड़ लोगों को डिप्रेशन से जुड़ी अलग-अलग बीमारियां हैं। हालात ये है कि 4.49 करोड़ लोग देश में हमेशा चिंता यानी एनजाइटी में जीते है जो इंसान की जिन्दगी के कुछ साल वैसे ही कम कर देती है। रिपोर्ट ने इस बात की भी जानकारी दी कि 1990-2017 के लंबे समय में लोगों में मानसिक स्वास्थ्य से आई विकलांगता  2.5 प्रतिशत से बढ़कर 4.7 फीसद तक पहुंच गई है।

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किशोर हो रहे हैं तेजी से शिकार-

WHO की अप्रैल, 2017 की 'Mental Health Status of Adolescents in South-East Asia: Evidence for Action' में बताया गया है कि भारत की 5.8 प्रतिशत आबादी 13-15 साल के किशोरों की है और इसमें से 25 फीसद किशोर करीब दो हफ्तों या उससे भी ज्यादा वक्त तक अवसाद यानी डिप्रेशन में रहते है। एंजाइटी 8 फीसद किशोरों को अपनी जकड़ में लेती है जबकि 8 प्रतिशत किशोर अकेलेपन के शिकार हैं और 10 प्रतिशत किशोरो का कोई दोस्त नहीं है। 11 फीसद पदार्थो के उपयोग यानी सब्सटेंस यूज कर रहे हैं।

मामले की गंभीरता को देखते हुए खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मार्च, 2017 की अपनी मन की बात में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर किशोरों से खुलकर बात की। बच्चों को इस बारे में जागरूक करते हुए उन्होंने बच्चों को परिवारजनों और दोस्तों से इस बारे में खुलकर बात करने की राय भी दी। स्कूलों में होने वाली बुलिंग या पीर्यस ग्रुप प्रेशर से होने वाले मानसिक विकारों को परिवार वालों से बातचीत कर आगे और बढ़ने से रोका जा सकता है।

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समाज और परिवार के सहयोग की जरूरत-

इसी बात को आगे बढ़ाते हुए दिल्ली के केंद्रीय विद्यालय में काम कर चुकीं कांउसिलिंग साइकोलाजिस्ट और जेंडर एक्सपर्ट, उरूसा खातून ने बताया, “बहुत सारे मामलों में बच्चों और उनके परिवारजनों को यही राय दी जाती है कि जितना हो सके आपस में बात करें। अक्सर मां-बाप और बच्चे के बीच आया डिस्कनेक्ट मानसिक विकारों को और तेजी से बढ़ाता है।” महानगरों में रहने वाले परिवारों में देखा जाता है कि मां-बाप दोनों ही कामकाजी होते हैं तो बच्चे को वह उतना वक्त नहीं दे पाते जितना कि उसके मानसिक विकास के लिए जरूरी होता है। बच्चा फिर धीरे-धीरे खुद को अकेला महसूस करने लगता है और वहीं से वह परिवार से दूर होना शुरू हो जाता है।

दिल्ली के सेंट्रल स्कूल में 11वीं कक्षा में पढ़ रहे अमित (काल्पनिक नाम) को भी रह रहकर आत्महत्या के खयाल मन में आते थे। परेशान तो वह रहता था लेकिन, घर में कोई भी उसकी इस परेशानी को नहीं जानता था। पढ़ाई में भी वह धीरे-धीरे पिछड़ने लगा। हाल यह हो गया कि अकेले और बंद कमरे में उसे लगता कि कोई उसे आत्महत्या के लिए उकसा रहा है। कमरे की लाइट बंद होते ही हालत और खराब होने लगती थी। स्कूल में मानसिक स्वास्थ्य पर आयोजित एक सेशन के बाद अमित के कुछ दोस्तों ने स्कूल की कांउसिलर को अपने दोस्त के बारे में बताया। बातचीत में कांउसिलर उरूसा खातून को मालूम हुआ कि उसके परिवार में किसी ने आत्महत्या की थी। मामला आगे बढ़ा फिर हुआ ये कि कुछ टीचर्स ने तो उसकी परेशानी को पढ़ाई से बचने का बहाना बताया लेकिन, स्कूल की प्रिंसिपल ने उरूसा का साथ दिया और उस बच्चे की लगातार कांउसिलिंग होती गई। केस क्योंकि गंभीर था तो अमित को सलाह के साथ दवाइयों का भी सहारा लेना पड़ा। इस केस को काफी तरीके से संभाला उरूसा ने जहां उनका बेघरों और सड़क पर रहने वाले बच्चों के लिए काम करने वाली संस्था सलाम बालक ट्रस्ट का अनुभव खासा काम आया।

इस बीच स्कूल ने सभी टीचर्स और सभी माता-पिता को समय-समय पर ट्रेनिंग सेशन के जरिए जागरुक करने का काम भी शुरू किया जिसमें हमेशा की तरह सभी टीचर्स की तो मदद नहीं मिली लेकिन, हां कई अध्यापकों ने इस पहल की सराहना की और चीजों को समझा भी। उधर, मां-बाप भी अब पहले से ज्यादा अपने बच्चों के लिए जागरुक हुए। उरूसा बतौर काउंसिलर सेंट्रल स्कूल्स के साथ लंबे वक्त से जुड़ी थी उन्होंने बताया, “अक्सर घर पर बेटा और बेटी में अंतर करने से भी बच्चों में एक गुस्सा और डिप्रेशन पैदा होता है। तो मां-बाप को चाहिए कि जाने अनजाने में भी अपने बच्चों के साथ लिंग भेद न करें।” बहरहाल, अमित की कांउसिलिंग करीब एक साल तक चली और इसी बीच उसकी शख्सियत में खूब पॉजिटिव बदलाव आए। वह कविताएं भी लिखने लगा और 12वीं बोर्ड में अच्छा परर्फाम किया।

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किशोरावस्था है नाजुक उम्र-

यह बात परिवार को भी समझनी होगी कि किशोरावस्था उम्र का बेहद नाजुक दौर होता है। इसी दौरान लड़का हो या लड़की सभी के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्तर में बदलाव आते हैं और परिवार और समाज से सही मदद न मिल पाने की वजह से इन किशोरों के भटकने की पूरी गुंजाइश होती है। दिल्ली में ग्रेटर कैलाश स्थित स्ंपदन मल्टीस्पेशैयलिटी क्लिनिक की क्लीनिकल साइकॉलजिस्ट कौस्तुभी शुक्ला भी लंबे वक्त से स्कूलों खासकर रेजिडेंशियल स्कूलों के बच्चों की भी काउंसिलिंग कर चुकी है का कहना है, “किशोरावस्था में आते ही बच्चे खुद में आए बदलावों को एकदम से संभाल नहीं पाते और उसपर, पढ़ाई, समाज और परिवार का दबाव अलग इस वजह से इस उम्र के बच्चे जल्दी मनोविकारों से घिर जाते हैं।” हालांकि, उन्होंने बताया कि दिल्ली में बच्चों में पढ़ाई को लेकर पैदा हुए मनोविकारों के मामले ज्यादा सामने आते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि ऐसा नहीं है कि यह मनोविकार लड़कों को ही ज्यादा होते है बल्कि लड़कियां भी इसकी बराबर से शिकार होती है फर्क सिर्फ इतना है कि बातचीत में लड़के खुलने में लंबा वक्त लगाते हैं जबकि लड़कियां अमूमन जल्दी ही अपने दिल की बातें साझा कर लेती हैं।

दिल्ली जैसे महानगर में स्कूल के बच्चों में पीयर्स प्रेशर भी खासा असर डालता है। कम उम्र में मोबाइल रखना, सिनेमा हॉल में जाकर नई फिल्में देखना, बाहर खाना, ब्रैंडेड कपड़े पहनना और सामान इस्तेमाल करना ये सब दिखावा किशोरों और बच्चों के कोमल मन पर बहुत असर डालता है। 12-17 की उम्र में स्कूलों में बुलिंग भी शुरू हो जाती है जो कभी-कभी गंभीर नतीजे दिखाती है। ये बुलिंग क्लास से लेकर वॉशरूम, बस या वैन और खेल के मैदान तक जाती है। ऐसे में दोनों ही कांउसिलर्स का कहना है कि मां-बाप को बच्चे से लगातार बात करते रहना ही इसका सबसे सटीक इलाज है। घर के लोगों को यह समझना चाहिए कि ये बच्चे अब किशोर हो रहे हैं इसलिए बेहतर होगा कि उनके बारे में लिए गए किसी भी फैसले में उनकी राय जरूर शामिल करें। अगर वे मां-बाप की नहीं सुनते तब भी उनपर अपना फैसला न थोपें बल्कि बातचीत के जरिए एकराय बनाने की कोशिश करें। क्योंकि घर और परिवार ही वह पहली संस्था है जिसकी बच्चे के संपूर्ण विकास में अहम भूमिका होती है। लेकिन, हां अगर घर के साथ-साथ स्कूलों में भी वक्त-वक्त पर बच्चों और किशोरों के लिए कांउसिलिंग सेशन आयोजत कराएं जा सके तो ये कदम इनके लिए वाकई मददगार साबित होगा।

 

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